अय्यूब 30

1 परन्तु अब जिनकी अवस्था मुझ से कम है, वे मेरी हंसी करते हैं, वे जिनके पिताओं को मैं अपनी भेड़ बकरियों के कुत्तों के काम के योग्य भी न जानता था।

2 उनके भुजबल से मुझे क्या लाभ हो सकता था? उनका पौरुष तो जाता रहा।

3 वे दरिद्रता और काल के मारे दुबले पड़े हुए हैं, वे अन्धेरे और सुनसान स्थानों में सूखी धूल फांकते हैं।

4 वे झाड़ी के आसपास का लोनिया साग तोड़ लेते, और झाऊ की जड़ें खाते हैं।

5 वे मनुष्यों के बीच में से निकाले जाते हैं, उनके पीछे ऐसी पुकार होती है, जैसी चोर के पीछे।

6 डरावने नालों में, भूमि के बिलों में, और चट्टानों में, उन्हें रहना पड़ता है।

7 वे झाड़ियों के बीच रेंकते, और बिच्छू पौधों के नीचे इकट्ठे पड़े रहते हैं।

8 वे मूढ़ों और नीच लोगों के वंश हैं जो मार मार के इस देश से निकाले गए थे।

9 ऐसे ही लोग अब मुझ पर लगते गीत गाते, और मुझ पर ताना मारते हैं।

10 वे मुझ से घिन खाकर दूर रहते, वा मेरे मुंह पर थूकने से भी नहीं डरते।

11 ईश्वर ने जो मेरी रस्सी खोल कर मुझे द:ख दिया है, इसलिये वे मेरे साम्हने मुंह में लगाम नहीं रखते।

12 मेरी दाहिनी अलंग पर बजारू लोग उठ खड़े होते हैं, वे मेरे पांव सरका देते हैं, और मेरे नाश के लिये अपने उपाय बान्धते हैं।

13 जिनके कोई सहायक नहीं, वे भी मेरे रास्तों को बिगाड़ते, और मेरी विपत्ति को बढ़ाते हैं।

14 मानो बड़े नाके से घुसकर वे आ पड़ते हैं, और उजाड़ के बीच में हो कर मुझ पर धावा करते हैं।

15 मुझ में घबराहट छा गई है, और मेरा रईसपन मानो वायु से उड़ाया गया है, और मेरा कुशल बादल की नाईं जाता रहा।

16 और अब मैं शोकसागर में डूबा जाता हूँ; दु:ख के दिनों ने मुझे जकड़ लिया है।

17 रात को मेरी हड्डियां मेरे अन्दर छिद जाती हैं और मेरी नसोंमें चैन नहीं पड़ती

18 मेरी बीमारी की बहुतायत से मेरे वस्त्र का रूप बदल गया है; वह मेरे कुर्ते के गले की नाईं मुझ से लिपटी हुई है।

19 उसने मुझ को कीचड़ में फेंक दिया है, और मैं मिट्टी और राख के तुल्य हो गया हूँ।

20 मैं तेरी दोहाई देता हूँ, परन्तु तू नहीं सुनता; मैं खड़ा होता हूँ परन्तु तू मेरी ओर घूरने लगता है।

21 तू बदलकर मुझ पर कठोर हो गया है; और अपने बली हाथ से मुझे सताता है।

22 तू मुझे वायु पर सवार कर के उड़ाता है, और आंधी के पानी में मुझे गला देता है।

23 हां, मुझे निश्चय है, कि तू मुझे मृत्यु के वश में कर देगा, और उस घर में पहुंचाएगा, जो सब जीवित प्राणियों के लिये ठहराया गया है।

24 तौभी क्या कोई गिरते समय हाथ न बढ़ाएगा? और क्या कोई विपत्ति के समय दोहाई न देगा?

25 क्या मैं उसके लिये रोता नहीं था, जिसके दुदिर्न आते थे? और क्या दरिद्र जन के कारण मैं प्राण में दुखित न होता था?

26 जब मैं कुशल का मार्ग जोहता था, तब विपत्ति आ पड़ी; और जब मैं उजियाले का आसरा लगाए था, तब अन्धकार छा गया।

27 मेरी अन्तडिय़ां निरन्तर उबलती रहती हैं और आराम नहीं पातीं; मेरे दु:ख के दिन आ गए हैं।

28 मैं शोक का पहिरावा पहिने हुए मानो बिना सूर्य की गमीं के काला हो गया हूँ। और सभा में खड़ा हो कर सहायता के लिये दोहाई देता हूँ।

29 मैं गीदड़ों का भाई और शुतुर्मुर्गों का संगी हो गया हूँ।

30 मेरा चमड़ा काला हो कर मुझ पर से गिरता जाता है, और तप के मारे मेरी हड्डियां जल गई हैं।

31 इस कारण मेरी वीणा से विलाप और मेरी बांसुरी से रोने की ध्वनि निकलती है।

अय्यूब 31

1 मैं ने अपनी आंखों के विषय वाचा बान्धी है, फिर मैं किसी कुंवारी पर क्योंकर आंखें लगाऊं?

2 क्योंकि ईश्वर स्वर्ग से कौन सा अंश और सर्वशक्तिमान ऊपर से कौन सी सम्पत्ति बांटता है?

3 क्या वह कुटिल मनुष्यों के लिये विपत्ति और अनर्थ काम करने वालों के लिये सत्यानाश का कारण नहीं है?

4 क्या वह मेरी गति नहीं देखता और क्या वह मेरे पग पग नहीं गिनता?

5 यदि मैं व्यर्थ चाल चालता हूं, वा कपट करने के लिये मेरे पैर दौड़े हों;

6 (तो मैं धर्म के तराजू में तौला जाऊं, ताकि ईश्वर मेरी खराई को जान ले)।

7 यदि मेरे पग मार्ग से बहक गए हों, और मेरा मन मेरी आंखो की देखी चाल चला हो, वा मेरे हाथों को कुछ कलंक लगा हो;

8 तो मैं बीज बोऊं, परन्तु दूसरा खाए; वरन मेरे खेत की उपज उखाड़ डाली जाए।

9 यदि मेरा हृदय किसी स्त्री पर मोहित हो गया है, और मैं अपने पड़ोसी के द्वार पर घात में बैठा हूँ;

10 तो मेरी स्त्री दूसरे के लिये पीसे, और पराए पुरुष उसको भ्रष्ट करें।

11 क्योंकि वह तो महापाप होता; और न्यायियों से दण्ड पाने के योग्य अधर्म का काम होता;

12 क्योंकि वह ऐसी आग है जो जला कर भस्म कर देती है, और वह मेरी सारी उपज को जड़ से नाश कर देती है।

13 जब मेरे दास वा दासी ने मुझ से झगड़ा किया, तब यदि मैं ने उनका हक मार दिया हो;

14 तो जब ईश्वर उठ खड़ा होगा, तब मैं क्या करूंगा? और जब वह आएगा तब मैं क्या उत्तर दूंगा?

15 क्या वह उसका बनाने वाला नहीं जिसने मुझे गर्भ में बनाया? क्या एक ही ने हम दोनों की सूरत गर्भ में न रची थी?

16 यदि मैं ने कंगालों की इच्छा पूरी न की हो, वा मेरे कारण विधवा की आंखें कभी रह गई हों,

17 वा मैं ने अपना टुकड़ा अकेला खाया हो, और उस में से अनाथ न खाने पाए हों,

18 ( परन्तु वह मेरे लड़कपन ही से मेरे साथ इस प्रकार पला जिस प्रकार पिता के साथ, और मैं जन्म ही से विधवा को पालता आया हूँ);

19 यदि मैं ने किसी को वस्त्रहीन मरते हुए देखा, वा किसी दरिद्र को जिसके पास ओढ़ने को न था

20 और उसको अपनी भेड़ों की ऊन के कपड़े न दिए हों, और उसने गर्म हो कर मुझे आशीर्वाद न दिया हो;

21 वा यदि मैं ने फाटक में अपने सहायक देख कर अनाथों के मारने को अपना हाथ उठाया हो,

22 तो मेरी बांह पखौड़े से उखड़ कर गिर पड़े, और मेरी भुजा की हड्डी टूट जाए।

23 क्योंकि ईश्वर के प्रताप के कारण मैं ऐसा नहीं कर सकता था, क्योंकि उसकी ओर की विपत्ति के कारण मैं भयभीत हो कर थरथराता था।

24 यदि मैं ने सोने का भरोसा किया होता, वा कुन्दन को अपना आसरा कहा होता,

25 वा अपने बहुत से धन वा अपनी बड़ी कमाई के कारण आनन्द किया होता,

26 वा सूर्य को चमकते वा चन्द्रमा को महाशोभा से चलते हुए देखकर

27 मैं मन ही मन मोहित हो गया होता, और अपने मुंह से अपना हाथ चूम लिया होता;

28 तो यह भी न्यायियों से दण्ड पाने के योग्य अधर्म का काम होता; क्योंकि ऐसा कर के मैं ने सर्वश्रेष्ट ईश्वर का इनकार किया होता।

29 यदि मैं अपने बैरी के नाश से आनन्दित होता, वा जब उस पर विपत्ति पड़ी तब उस पर हंसा होता;

30 ( परन्तु मैं ने न तो उसकी शाप देते हुए, और न उसके प्राणदण्ड की प्रार्थना करते हुए अपने मुंह से पाप किया है);

31 यदि मेरे डेरे के रहने वालों ने यह न कहा होता, कि ऐसा कोई कहां मिलेगा, जो इसके यहां का मांस खाकर तृप्त न हुआ हो?

32 (परदेशी को सड़क पर टिकना न पड़ता था; मैं बटोही के लिये अपना द्वार खुला रखता था);

33 यदि मैं ने आदम की नाईं अपना अपराध छिपाकर अपने अधर्म को ढांप लिया हो,

34 इस कारण कि मैं बड़ी भीड़ से भय खाता था, वा कुलीनों से तुच्छ किए जाने से डर गया यहां तक कि मैं द्वार से बाहर न निकला—

35 भला होता कि मेरा कोई सुनने वाला होता! (सर्वशक्तिमान अभी मेरा न्याय चुकाए! देखो मेरा दस्तखत यही है)। भला होता कि जो शिकायतनामा मेरे मुद्दई ने लिखा है वह मेरे पास होता!

36 निश्चय मैं उसको अपने कन्धे पर उठाए फिरता; और सुन्दर पगड़ी जान कर अपने सिर में बान्धे रहता।

37 मैं उसको अपने पग पग का हिसाब देता; मैं उसके निकट प्रधान की नाईं निडर जाता।

38 यदि मेरी भूमि मेरे विरुद्ध दोहाई देती हो, और उसकी रेघारियां मिल कर रोती हों;

39 यदि मैं ने अपनी भूमि की उपज बिना मजूरी दिए खाई, वा उसके मालिक का प्राण लिया हो;

40 तो गेहूं के बदले झड़बेड़ी, और जव के बदले जंगली घास उगें! अय्यूब के वचन पूरे हुए हैं।

अय्यूब 32

1 तब उन तीनों पुरुषों ने यह देख कर कि अय्यूब अपनी दृष्टि में निर्दोष है उसको उत्तर देना छोड़ दिया।

2 और बूजी बारकेल का पुत्र एलीहू जो राम के कुल का था, उसका क्रोध भड़क उठा। अय्यूब पर उसका क्रोध इसलिये भड़क उठा, कि उसने परमेश्वर को नहीं, अपने ही को निर्दोष ठहराया।

3 फिर अय्यूब के तीनों मित्रों के विरुद्ध भी उसका क्रोध इस कारण भड़का, कि वे अय्यूब को उत्तर न दे सके, तौभी उसको दोषी ठहराया।

4 एलीहू तो अपने को उन से छोटा जानकर अय्यूब की बातों के अन्त की बाट जोहता रहा।

5 परन्तु जब एलीहू ने देखा कि ये तीनों पुरुष कुछ उत्तर नहीं देते, तब उसका क्रोध भड़क उठा।

6 तब बूजी बारकेल का पुत्र एलीहू कहने लगा, कि मैं तो जवान हूँ, और तुम बहुत बूढ़े हो; इस कारण मैं रुका रहा, और अपना विचार तुम को बताने से डरता था।

7 मैं सोचता था, कि जो आयु में बड़े हैं वे ही बात करें, और जो बहुत वर्ष के हैं, वे ही बुद्धि सिखाएं।

8 परन्तु मनुष्य में आत्मा तो है ही, और सर्वशक्तिमान अपनी दी हुई सांस से उन्हें समझने की शक्ति देता है।

9 जो बुद्धिमान हैं वे बड़े बड़े लोग ही नहीं और न्याय के समझने वाले बूढ़े ही नहीं होते।

10 इसलिये मैं कहता हूं, कि मेरी भी सुनो; मैं भी अपना विचार बताऊंगा।

11 मैं तो तुम्हारी बातें सुनने को ठहरा रहा, मैं तुम्हारे प्रमाण सुनने के लिये ठहरा रहा; जब कि तुम कहने के लिये शब्द ढूंढ़ते रहे।

12 मैं चित्त लगा कर तुम्हारी सुनता रहा। परन्तु किसी ने अय्यूब के पक्ष का खण्डन नहीं किया, और न उसकी बातों का उत्तर दिया।

13 तुम लोग मत समझो कि हम को ऐसी बुद्धि मिली है, कि उसका खण्डन मनुष्य नहीं ईश्वर ही कर सकता है।

14 जो बातें उसने कहीं वह मेरे विरुद्ध तो नहीं कहीं, और न मैं तुम्हारी सी बातों से उसको उत्तर दूंगा।

15 वे विस्मित हुए, और फिर कुछ उत्तर नहीं दिया; उन्होंने बातें करना छोड़ दिया।

16 इसलिये कि वे कुछ नहीं बोलते और चुपचाप खड़े हैं, क्या इस कारण मैं ठहरा रहूं?

17 परन्तु अब मैं भी कुछ कहूंगा मैं भी अपना विचार प्रगट करूंगा।

18 क्योंकि मेरे मन में बातें भरी हैं, और मेरी आत्मा मुझे उभार रही है।

19 मेरा मन उस दाखमधु के समान है, जो खोला न गया हो; वह नई कुप्पियों की नाईं फटा चाहता है।

20 शान्ति पाने के लिये मैं बोलूंगा; मैं मुंह खोल कर उत्तर दूंगा।

21 न मैं किसी आदमी का पक्ष करूंगा, और न मैं किसी मनुष्य को चापलूसी की पदवी दूंगा।

22 क्योंकि मुझे तो चापलूसी करना आता ही नहीं नहीं तो मेरा सिरजनहार झण भर में मुझे उठा लेता।

अय्यूब 33

1 तौभी हे अय्यूब! मेरी बातें सुन ले, और मेरे सब वचनों पर कान लगा।

2 मैं ने तो अपना मुंह खोला है, और मेरी जीभ मुंह में चुलबुला रही है।

3 मेरी बातें मेरे मन की सिधाई प्रगट करेंगी; जो ज्ञान मैं रखता हूं उसे खराई के साथ कहूंगा।

4 मुझे ईश्वर की आत्मा ने बनाया है, और सर्वशक्तिमान की सांस से मुझे जीवन मिलता है।

5 यदि तू मुझे उत्तर दे सके, तो दे; मेरे साम्हने अपनी बातें क्रम से रच कर खड़ा हो जा।

6 देख मैं ईश्वर के सन्मुख तेरे तुल्य हूँ; मैं भी मिट्टी का बना हुआ हूँ।

7 सुन, तुझे मेरे डर के मारे घबराना न पड़ेगा, और न तू मेरे बोझ से दबेगा।

8 नि:सन्देह तेरी ऐसी बात मेरे कानों में पड़ी है और मैं ने तेरे वचन सुने हैं, कि

9 मैं तो पवित्र और निरपराध और निष्कलंक हूँ; और मुझ में अर्ध्म नहीं है।

10 देख, वह मुझ से झगड़ने के दांव ढूंढ़ता है, और मुझे अपना शत्रु समझता है;

11 वह मेरे दोनों पांवों को काठ में ठोंक देता है, और मेरी सारी चाल की देखभाल करता है।

12 देख, मैं तुझे उत्तर देता हूँ, इस बात में तू सच्चा नहीं है। क्योंकि ईश्वर मनुष्य से बड़ा है।

13 तू उस से क्यों झगड़ता है? क्योंकि वह अपनी किसी बात का लेखा नहीं देता।

14 क्योंकि ईश्वर तो एक क्या वरन दो बार बोलता है, परन्तु लोग उस पर चित्त नहीं लगाते।

15 स्वप्न में, वा रात को दिए हुए दर्शन में, जब मनुष्य घोर निद्रा में पड़े रहते हैं, वा बिछौने पर सोते समय,

16 तब वह मनुष्यों के कान खोलता है, और उनकी शिक्षा पर मुहर लगाता है,

17 जिस से वह मनुष्य को उसके संकल्प से रोके और गर्व को मनुष्य में से दूर करे।

18 वह उसके प्राण को गढ़हे से बचाता है, और उसके जीवन को खड़ग की मार से बचाता है।

19 उसे ताड़ना भी होती है, कि वह अपने बिछौने पर पड़ा पड़ा तड़पता है, और उसकी हड्डी हड्डी में लगातार झगड़ा होता है

20 यहां तक कि उसका प्राण रोटी से, और उसका मन स्वादिष्ट भोजन से घृणा करने लगता है।

21 उसका मांस ऐसा सूख जाता है कि दिखाई नहीं देता; और उसकी हड्डियां जो पहिले दिखाई नहीं देती थीं निकल आती हैं।

22 निदान वह कबर के निकट पहुंचता है, और उसका जीवन नाश करने वालों के वश में हो जाता है।

23 यदि उसके लिये कोई बिचवई स्वर्ग दूत मिले, जो हजार में से एक ही हो, जो भावी कहे। और जो मनुष्य को बताए कि उसके लिये क्या ठीक है।

24 तो वह उस पर अनुग्रह कर के कहता है, कि उसे गढ़हे में जाने से बचा ले, मुझे छुड़ौती मिली है।

25 तब उस मनुष्य की देह बालक की देह से अधिक स्वस्थ और कोमल हो जाएगी; उसकी जवानी के दिन फिर लौट आएंगे।

26 वह ईश्वर से बिनती करेगा, और वह उस से प्रसन्न होगा, वह आनन्द से ईश्वर का दर्शन करेगा, और ईश्वर मनुष्य को ज्यों का त्यों धमीं कर देगा।

27 वह मनुष्यों के साम्हने गाने और कहने लगता है, कि मैं ने पाप किया, और सच्चाई को उलट पुलट कर दिया, परन्तु उसका बदला मुझे दिया नहीं गया।

28 उसने मेरे प्राण क़ब्र में पड़ने से बचाया है, मेरा जीवन उजियाले को देखेगा।

29 देख, ऐसे ऐसे सब काम ईश्वर पुरुष के साथ दो बार क्या वरन तीन बार भी करता है,

30 जिस से उसको क़ब्र से बचाए, और वह जीवनलोक के उजियाले का प्रकाश पाए।

31 हे अय्यूब! कान लगा कर मेरी सुन; चुप रह, मैं और बोलूंगा।

32 यदि तुझे बात कहनी हो, तो मुझे उत्तर दे; बोल, क्योंकि मैं तुझे निर्दोष ठहराना चाहता हूँ।

33 यदि नहीं, तो तु मेरी सुन; चुप रह, मैं तुझे बुद्धि की बात सिखाऊंगा।

अय्यूब 34

1 फिर एलीहू यों कहता गया;

2 हे बुद्धिमानो! मेरी बातें सुनो, और हे ज्ञानियो! मेरी बातों पर कान लगाओ;

3 क्योंकि जैसे जीभ से चखा जाता है, वैसे ही वचन कान से परखे जाते हैं।

4 जो कुछ ठीक है, हम अपने लिये चुन लें; जो भला है, हम आपस में समझ बूझ लें।

5 क्योंकि अय्यूब ने कहा है, कि मैं निर्दोष हूँ, और ईश्वर ने मेरा हक़ मार दिया है।

6 यद्यपि मैं सच्चाई पर हूं, तौभी झूठा ठहरता हूँ, मैं निरपराध हूँ, परन्तु मेरा घाव असाध्य है।

7 अय्यूब के तुल्य कौन शूरवीर है, जो ईश्वर की निन्दा पानी की नाईं पीता है,

8 जो अनर्थ करने वालों का साथ देता, और दुष्ट मनुष्यों की संगति रखता है?

9 उसने तो कहा है, कि मनुष्य को इस से कुछ लाभ नहीं कि वह आनन्द से परमेश्वर की संगति रखे।

10 इसलिऐ हे समझवालो! मेरी सुनो, यह सम्भव नहीं कि ईश्वर दुष्टता का काम करे, और सर्वशकितमान बुराई करे।

11 वह मनुष्य की करनी का फल देता है, और प्रत्येक को अपनी अपनी चाल का फल भुगताता है।

12 नि:सन्देह ईश्वर दुष्टता नहीं करता और न सर्वशक्तिमान अन्याय करता है।

13 किस ने पृथ्वी को उसके हाथ में सौंप दिया? वा किस ने सारे जगत का प्रबन्ध किया?

14 यदि वह मनुष्य से अपना मन हटाये और अपना आत्मा और श्वास अपने ही में समेट ले,

15 तो सब देहधारी एक संग नाश हो जाएंगे, और मनुष्य फिर मिट्टी में मिल जाएगा।

16 इसलिये इस को सुन कर समझ रख, और मेरी इन बातों पर कान लगा।

17 जो न्याय का बैरी हो, क्या वह शासन करे? जो पूर्ण धमीं है, क्या तू उसे दुष्ट ठहराएगा?

18 वह राजा से कहता है कि तू नीच है; और प्रधानों से, कि तुम दुष्ट हो।

19 ईश्वर तो हाकिमों का पक्ष नहीं करता और धनी और कंगाल दोनों को अपने बनाए हुए जान कर उन में कुछ भेद नहीं करता।

20 आधी रात को पल भर में वे मर जाते हैं, और प्रजा के लोग हिलाए जाते और जाते रहते हैं। और प्रतापी लोग बिना हाथ लगाए उठा लिए जाते हैं।

21 क्योंकि ईश्वर की आंखें मनुष्य की चालचलन पर लगी रहती हैं, और वह उसकी सारी चाल को देखता रहता है।

22 ऐसा अन्धियारा वा घोर अन्धकार कहीं नहीं है जिस में अनर्थ करने वाले छिप सकें।

23 क्योंकि उसने मनुष्य का कुछ समय नहीं ठहराया ताकि वह ईश्वर के सम्मुख अदालत में जाए।

24 वह बड़े बड़े बलवानों को बिना पूछपाछ के चूर चूर करता है, और उनके स्थान पर औरों को खड़ा कर देता है।

25 इसलिये कि वह उनके कामों को भली भांति जानता है, वह उन्हें रात में ऐसा उलट देता है कि वे चूर चूर हो जाते हैं।

26 वह उन्हें दुष्ट जान कर सभों के देखते मारता है,

27 क्योंकि उन्होंने उसके पीछे चलना छोड़ दिया है, और उसके किसी मार्ग पर चित्त न लगाया,

28 यहां तक कि उनके कारण कंगालों की दोहाई उस तक पहुंची और उसने दीन लोगों की दोहाई सुनी।

29 जब वह चैन देता तो उसे कौन दोषी ठहरा सकता है? और जब वह मुंह फेर ले, तब कौन उसका दर्शन पा सकता है? जाति भर के साथ और अकेले मनुष्य, दोनों के साथ उसका बराबर व्यवहार है

30 ताकि भक्तिहीन राज्य करता न रहे, और प्रजा फन्दे में फंसाई न जाए।

31 क्या किसी ने कभी ईश्वर से कहा, कि मैं ने दण्ड सहा, अब मैं भविष्य में बुराई न करूंगा,

32 जो कुछ मुझे नहीं सूज पड़ता, वह तू मुझे सिखा दे; और यदि मैं ने टेढ़ा काम किया हो, तो भविष्य में वैसा न करूंगा?

33 क्या वह तेरे ही मन के अनुसार बदला पाए क्योंकि तू उस से अप्रसन्न है? क्योंकि तुझे निर्णय करना है, न कि मुझे; इस कारण जो कुछ तुझे समझ पड़ता है, वह कह दे।

34 सब ज्ञानी पुरुष वरन जितने बुद्धिमान मेरी सुनते हैं वे मुझ से कहेंगे, कि

35 अय्यूब ज्ञान की बातें नहीं कहता, और न उसके वचन समझ के साथ होते हैं।

36 भला होता, कि अय्यूब अन्त तक परीक्षा में रहता, क्योंकि उसने अनर्थियों के से उत्तर दिए हैं।

37 और वह अपने पाप में विरोध बढ़ाता है; ओर हमारे बीच ताली बजाता है, और ईश्वर के विरुद्ध बहुत सी बातें बनाता है।

अय्यूब 35

1 फिर एलीहू इस प्रकार और भी कहता गया,

2 कि क्या तू इसे अपना हक़ समझता है? क्या तू दावा करता है कि तेरा धर्म ईश्वर के धर्म से अधिक है?

3 जो तू कहता है कि मुझे इस से क्या लाभ? और मुझे पापी होने में और न होने में कौन सा अधिक अन्तर है?

4 मैं तुझे और तेरे साथियों को भी एक संग उत्तर देता हूँ।

5 आकाश की ओर दृष्टि कर के देख; और आकाशमण्डल को ताक, जो तुझ से ऊंचा है।

6 यदि तू ने पाप किया है तो ईश्वर का क्या बिगड़ता है? यदि तेरे अपराध बहुत ही बढ़ जाएं तौभी तू उसके साथ क्या करता है?

7 यदि तू धमीं है तो उसको क्या दे देता है; वा उसे तेरे हाथ से क्या मिल जाता है?

8 तेरी दुष्टता का फल तुझ ऐसे ही पुरुष के लिये है, और तेरे धर्म का फल भी मनुष्य मात्र के लिये है।

9 बहुत अन्धेर होने के कारण वे चिल्लाते हैं; और बलवान के बाहुबल के कारण वे दोहाई देते हैं।

10 तौभी कोई यह नहीं कहता, कि मेरा सृजने वाला ईश्वर कहां है, जो रात में भी गीत गवाता है,

11 और हमें पृथ्वी के पशुओं से अधिक शिक्षा देता, और आकाश के पक्षियों से अधिक बुद्धि देता है?

12 वे दोहाई देते हैं परन्तु कोई उत्तर नहीं देता, यह बुरे लोगों के घमण्ड के कारण होता है।

13 निश्चय ईश्वर व्यर्थ बातें कभी नहीं सुनता, और न सर्वशक्तिमान उन पर चित्त लगाता है।

14 तो तू क्यों कहता है, कि वह मुझे दर्शन नहीं देता, कि यह मुक़द्दमा उसके साम्हने है, और तू उसकी बाट जोहता हुआ ठहरा है?

15 परन्तु अभी तो उसने क्रोध कर के दण्ड नहीं दिया है, और अभिमान पर चित्त बहुत नहीं लगाया;

16 इस कारण अय्यूब व्यर्थ मुंह खोल कर अज्ञानता की बातें बहुत बनाता है।

अय्यूब 36

1 फिर एलीहू ने यह भी कहा,

2 कुछ ठहरा रह, और मैं तुझ को समझाऊंगा, क्योंकि ईश्वर के पक्ष में मुझे कुछ और भी कहना है।

3 मैं अपने ज्ञान की बात दूर से ले आऊंगा, और अपने सिरजनहार को धमीं ठहराऊंगा।

4 निश्चय मेरी बातें झूठी न होंगी, वह जो तेरे संग है वह पूरा ज्ञानी है।

5 देख, ईश्वर सामथीं है, और किसी को तुच्छ नहीं जानता; वह समझने की शक्ति में समर्थ है।

6 वह दुष्टों को जिलाए नहीं रखता, और दीनों को उनका हक देता है।

7 वह धर्मियों से अपनी आंखें नहीं फेरता, वरन उन को राजाओं के संग सदा के लिये सिंहासन पर बैठाता है, और वे ऊंचे पद को प्राप्त करते हैं।

8 ओर चाहे वे बेडिय़ों में जकड़े जाएं और दु:ख की रस्सियों से बान्धे जाएं,

9 तौभी ईश्वर उन पर उनके काम, और उनका यह अपराध प्रगट करता है, कि उन्होंने गर्व किया है।

10 वह उनके कान शिक्षा सुनने के लिये खोलता है, और आज्ञा देता है कि वे बुराई से परे रहें।

11 यदि वे सुन कर उसकी सेवा करें, तो वे अपने दिन कल्याण से, और अपने वर्ष सुख से पूरे करते हैं।

12 परन्तु यदि वे न सुनें, तो वे खड़ग से नाश हो जाते हैं, और अज्ञानता में मरते हैं।

13 परन्तु वे जो मन ही मन भक्तिहीन हो कर क्रोध बढ़ाते, और जब वह उन को बान्धता है, तब भी दोहाई नहीं देते,

14 वे जवानी में मर जाते हैं और उनका जीवन लूच्चों के बीच में नाश होता है।

15 वह दुखियों को उनके दु:ख से छुड़ाता है, और उपद्रव में उनका कान खोलता है।

16 परन्तु वह तुझ को भी क्लेश के मुंह में से निकाल कर ऐसे चौड़े स्थान में जहां सकेती नहीं है, पहुंचा देता है, और चिकना चिकना भोजन तेरी मेज पर परोसता है।

17 परन्तु तू ने दुष्टों का सा निर्णय किया है इसलिये निर्णय और न्याय तुझ से लिपटे रहते है।

18 देख, तू जलजलाहट से उभर के ठट्ठा मत कर, और न प्रायश्चित्त को अधिक बड़ा जान कर मार्ग से मुड़।

19 क्या तेरा रोना वा तेरा बल तुझे दु:ख से छुटकारा देगा?

20 उस रात की अभिलाषा न कर, जिस में देश देश के लोग अपने अपने स्थान से मिटाए जाते हैं।

21 चौकस रह, अनर्थ काम की ओर मत फिर, तू ने तो दु:ख से अधिक इसी को चुन लिया है।

22 देख, ईश्वर अपने सामर्ध्य से बड़े बड़े काम करता है, उसके समान शिक्षक कौन है?

23 किस ने उसके चलने का मार्ग ठहराया है? और कौन उस से कह सकता है, कि तू ने अनुचित काम किया है?

24 उसके कामों की महिमा और प्रशंसा करने को स्मरण रख, जिसकी प्रशंसा का गीत मनुष्य गाते चले आए हैं।

25 सब मनुष्य उसको ध्यान से देखते आए हैं, और मनुष्य उसे दूर दूर से देखता है।

26 देख, ईश्वर महान और हमारे ज्ञान से कहीं परे है, और उसके वर्ष की गिनती अनन्त है।

27 क्योंकि वह तो जल की बूंदें ऊपर को खींच लेता है वे कुहरे से मेंह हो कर टपकती हैं,

28 वे ऊंचे ऊंचे बादल उंडेलते हैं और मनुष्यों के ऊपर बहुतायत से बरसाते हैं।

29 फिर क्या कोई बादलों का फैलना और उसके मण्डल में का गरजना समझ सकता है?

30 देख, वह अपने उजियाले को चहुँ ओर फैलाता है, और समुद्र की थाह को ढांपता है।

31 क्योंकि वह देश देश के लोगों का न्याय इन्हीं से करता है, और भोजन वस्तुएं बहुतायत से देता है।

32 वह बिजली को अपने हाथ में ले कर उसे आज्ञा देता है कि दुश्मन पर गिरे।

33 इसकी कड़क उसी का समाचार देती है पशु भी प्रगट करते हैं कि अन्धड़ चढ़ा आता है।

अय्यूब 37

1 फिर इस बात पर भी मेरा हृदय कांपता है, और अपने स्थान से उछल पड़ता है।

2 उसके बोलने का शब्द तो सुनो, और उस शब्द को जो उसके मुंह से निकलता है सुनो।

3 वह उसको सारे आकाश के तले, और अपनी बिजली को पृथ्वी की छोर तक भेजता है।

4 उसके पीछे गरजने का शब्द होता है; वह अपने प्रतापी शब्द से गरजता है, और जब उसका शब्द सुनाईं देता है तब बिजली लगातार चमकने लगती है।

5 ईश्वर गरज कर अपना शब्द अद्भूत रीति से सुनाता है, और बड़े बड़े काम करता है जिन को हम नहीं समझते।

6 वह तो हिम से कहता है, पृथ्वी पर गिर, और इसी प्रकार मेंह को भी और मूसलाधार वर्षा को भी ऐसी ही आज्ञा देता है।

7 वह सब मनुष्यों के हाथ पर मुहर कर देता है, जिस से उसके बनाए हुए सब मनुष्य उसको पहचानें।

8 तब वनपशु गुफाओं में घुस जाते, और अपनी अपनी मांदों में रहते हैं।

9 दक्खिन दिशा से बवण्डर और उतरहिया से जाड़ा आता है।

10 ईश्वर की श्वास की फूंक से बरफ पड़ता है, तब जलाशयों का पाट जम जाता है।

11 फिर वह घटाओं को भाफ़ से लादता, और अपनी बिजली से भरे हुए उजियाले का बादल दूर तक फैलाता है।

12 वे उसकी बुद्धि की युक्ति से इधर उधर फिराए जाते हैं, इसलिये कि जो आज्ञा वह उन को दे, उसी को वे बसाई हुई पृथ्वी के ऊपर पूरी करें।

13 चाहे ताड़ना देने के लिये, चाहे अपनी पृथ्वी की भलाई के लिये वा मनुष्यों पर करुणा करने के लिये वह उसे भेजे।

14 हे अय्यूब! इस पर कान लगा और सुन ले; चुपचाप खड़ा रह, और ईश्वर के आश्चर्यकर्मों का विचार कर।

15 क्या तू जानता है, कि ईश्वर क्योंकर अपने बादलों को आज्ञा देता, और अपने बादल की बिजली को चमकाता है?

16 क्या तू घटाओं का तौलना, वा सर्वज्ञानी के आश्चर्यकर्म जानता है?

17 जब पृथ्वी पर दक्खिनी हवा ही के कारण से सन्नाटा रहता है तब तेरे वस्त्र क्यों गर्म हो जाते हैं?

18 फिर क्या तू उसके साथ आकाशमण्डल को तान सकता है, जो ढाले हुए दर्पण के तुल्य दृढ़ है?

19 तू हमें यह सिखा कि उस से क्या कहना चाहिये? क्योंकि हम अन्धियारे के कारण अपना व्याख्यान ठीक नहीं रच सकते।

20 क्या उसको बताया जाए कि मैं बोलना चाहता हूँ? क्या कोई अपना सत्यानाश चाहता है?

21 अभी तो आकाशमण्डल में का बड़ा प्रकाश देखा नहीं जाता जब वायु चलकर उसको शुद्ध करती है।

22 उत्तर दिशा से सुनहली ज्योति आती है ईश्वर भययोग्य तेज से आभूषित है।

23 सर्वशक्तिमान जो अति सामथीं है, और जिसका भेद हम पा नहीं सकते, वह न्याय और पूर्ण धर्म को छोड़ अत्याचार नहीं कर सकता।

24 इसी कारण सज्जन उसका भय मानते हैं, और जो अपनी दृष्टि में बुद्धिमान हैं, उन पर वह दृष्टि नहीं करता।

अय्यूब 38

1 तब यहोवा ने अय्यूब को आँधी में से यूं उत्तर दिया,

2 यह कौन है जो अज्ञानता की बातें कहकर युक्ति को बिगाड़ना चाहता है?

3 पुरुष की नाईं अपनी कमर बान्ध ले, क्योंकि मैं तुझ से प्रश्न करता हूँ, और तू मुझे उत्तर दे।

4 जब मैं ने पृथ्वी की नेव डाली, तब तू कहां था? यदि तू समझदार हो तो उत्तर दे।

5 उसकी नाप किस ने ठहराई, क्या तू जानता है उस पर किस ने सूत खींचा?

6 उसकी नेव कौन सी वस्तु पर रखी गई, वा किस ने उसके कोने का पत्थर बिठाया,

7 जब कि भोर के तारे एक संग आनन्द से गाते थे और परमेश्वर के सब पुत्र जयजयकार करते थे?

8 फिर जब समुद्र ऐसा फूट निकला मानो वह गर्भ से फूट निकला, तब किस ने द्वार मूंदकर उसको रोक दिया;

9 जब कि मैं ने उसको बादल पहिनाया और घोर अन्धकार में लपेट दिया,

10 और उसके लिये सिवाना बान्धा और यह कहकर बेंड़े और किवाड़े लगा दिए, कि

11 यहीं तक आ, और आगे न बढ़, और तेरी उमंडने वाली लहरें यहीं थम जाएं?

12 क्या तू ने जीवन भर में कभी भोर को आज्ञा दी, और पौ को उसका स्थान जताया है,

13 ताकि वह पृथ्वी की छोरों को वश में करे, और दुष्ट लोग उस में से झाड़ दिए जाएं?

14 वह ऐसा बदलता है जैसा मोहर के नीचे चिकनी मिट्टी बदलती है, और सब वस्तुएं मानो वस्त्र पहिने हुए दिखाई देती हैं।

15 दुष्टों से उनका उजियाला रोक लिया जाता है, और उनकी बढ़ाई हुई बांह तोड़ी जाती है।

16 क्या तू कभी समुद्र के सोतों तक पहुंचा है, वा गहिरे सागर की थाह में कभी चला फिरा है?

17 क्या मृत्यु के फाटक तुझ पर प्रगट हुए, क्या तू घोर अन्धकार के फाटकों को कभी देखन पाया है?

18 क्या तू ने पृथ्वी की चौड़ाई को पूरी रीति से समझ लिया है? यदि तू यह सब जानता है, तो बतला दे।

19 उजियाले के निवास का मार्ग कहां है, और अन्धियारे का स्थान कहां है?

20 क्या तू उसे उसके सिवाने तक हटा सकता है, और उसके घर की डगर पहिचान सकता है?

21 नि:सन्देह तू यह सब कुछ जानता होगा! क्योंकि तू तो उस समय उत्पन्न हुआ था, और तू बहुत आयु का है।

22 फिर क्या तू कभी हिम के भणडार में पैठा, वा कभी ओलों के भणडार को तू ने देखा है,

23 जिस को मैं ने संकट के समय और युद्ध और लड़ाई के दिन के लिये रख छोड़ा है?

24 किस मार्ग से उजियाला फैलाया जाता है, ओर पुरवाई पृथ्वी पर बहाई जाती है?

25 महावृष्टि के लिये किस ने नाला काटा, और कड़कने वाली बिजली के लिये मार्ग बनाया है,

26 कि निर्जन देश में और जंगल में जहां कोई मनुष्य नहीं रहता मेंह बरसाकर,

27 उजाड़ ही उजाड़ देश को सींचे, और हरी घास उगाए?

28 क्या मेंह का कोई पिता है, और ओस की बूंदें किस ने उत्पन्न की?

29 किस के गर्भ से बर्फ निकला है, और आकाश से गिरे हुए पाले को कौन उत्पन्न करता है?

30 जल पत्थर के समान जम जाता है, और गहिरे पानी के ऊपर जमावट होती है।

31 क्या तू कचपचिया का गुच्छा गूंथ सकता वा मृगशिरा के बन्धन खोल सकता है?

32 क्या तू राशियों को ठीक ठीक समय पर उदय कर सकता, वा सप्तर्षि को साथियों समेत लिए चल सकता है?

33 क्या तू आकाशमण्डल की विधियां जानता और पृथ्वी पर उनका अधिकार ठहरा सकता है?

34 क्या तू बादलों तक अपनी वाणी पहुंचा सकता है ताकि बहुत जल बरस कर तुझे छिपा ले?

35 क्या तू बिजली को आज्ञा दे सकता है, कि वह जाए, और तुझ से कहे, मैं उपस्थित हूँ?

36 किस ने अन्त:करण में बुद्धि उपजाई, और मन में समझने की शक्ति किस ने दी है?

37 कौन बुद्धि से बादलों को गिन सकता है? और कौन आकाश के कुप्पों को उण्डेल सकता है,

38 जब धूलि जम जाती है, और ढेले एक दूसरे से सट जाते हैं?

39 क्या तू सिंहनी के लिये अहेर पकड़ सकता, और जवान सिंहों का पेट भर सकता है,

40 जब वे मांद में बैठे हों और आड़ में घात लगाए दबक कर बैठे हों?

41 फिर जब कौवे के बच्चे ईश्वर की दोहाई देते हुए निराहार उड़ते फिरते हैं, तब उन को आहार कौन देता है?

अय्यूब 39

1 क्या तू जानता है कि पहाड़ पर की जंगली बकरियां कब बच्चे देती हैं? वा जब हरिणियां बियाती हैं, तब क्या तू देखता रहता है?

2 क्या तू उनके महीने गिन सकता है, क्या तू उनके बियाने का समय जानता है?

3 जब वे बैठ कर अपने बच्चों को जनतीं, वे अपनी पीड़ों से छूट जाती हैं?

4 उनके बच्चे हृष्टपुष्ट हो कर मैदान में बढ़ जाते हैं; वे निकल जाते और फिर नहीं लौटते।

5 किस ने बनैले गदहे को स्वाधीन कर के छोड़ दिया है? किस ने उसके बन्धन खोले हैं?

6 उसका घर मैं ने निर्जल देश को, और उसका निवास लोनिया भूमि को ठहराया है।

7 वह नगर के कोलाहल पर हंसता, और हांकने वाले की हांक सुनता भी नहीं।

8 पहाड़ों पर जो कुछ मिलता है उसे वह चरता वह सब भांति की हरियाली ढूंढ़ता फिरता है।

9 क्या जंगली सांढ़ तेरा काम करने को प्रसन्न होगा? क्या वह तेरी चरनी के पास रहेगा?

10 क्या तू जंगली सांढ़ को रस्से से बान्धकर रेघारियों में चला सकता है? क्या वह नालों में तेरे पीछे पीछे हेंगा फेरेगा?

11 क्या तू उसके बड़े बल के कारण उस पर भरोसा करेगा? वा जो परिश्रम का काम तेरा हो, क्या तू उसे उस पर छोड़ेगा?

12 क्या तू उसका विश्वास करेगा, कि वह तेरा अनाज घर ले आए, और तेरे खलिहान का अन्न इकट्ठा करे?

13 फिर शुतुरमुगीं अपने पंखों को आनन्द से फुलाती है, परन्तु क्या ये पंख और पर स्नेह को प्रगट करते हैं?

14 क्योंकि वह तो अपने अण्डे भूमि पर छोड़ देती और धूलि में उन्हें गर्म करती है;

15 और इसकी सुधि नहीं रखती, कि वे पांव से कुचले जाएंगे, वा कोई वनपशु उन को कुचल डालेगा।

16 वह अपने बच्चों से ऐसी कठोरता करती है कि मानो उसके नहीं हैं; यद्यपि उसका कष्ट अकारथ होता है, तौभी वह निश्चिन्त रहती है;

17 क्योंकि ईश्वर ने उसको बुद्धिरहित बनाया, और उसे समझने की शक्ति नहीं दी।

18 जिस समय वह सीधी हो कर अपने पंख फैलाती है, तब घोड़े और उसके सवार दोनों को कुछ नहीं समझती है।

19 क्या तू ने घोड़े को उसका बल दिया है? क्या तू ने उसकी गर्दन में फहराती हुई अयाल जमाई है?

20 क्या उसको टिड्डी की सी उछलने की शक्ति तू देता है? उसके फुंक्कारने का शब्द डरावना होता है।

21 वह तराई में टाप मारता है और अपने बल से हषिर्त रहता है, वह हथियारबन्दों का साम्हना करने को निकल पड़ता है।

22 वह डर की बात पर हंसता, और नहीं घबराता; और तलवार से पीछे नहीं हटता।

23 तर्कश और चमकता हुआ सांग ओर भाला उस पर खड़खड़ाता है।

24 वह रिस और क्रोध के मारे भूमि को निगलता है; जब नरसिंगे का शब्द सुनाई देता है तब वह रुकता नहीं।

25 जब जब नरसिंगा बजता तब तब वह हिन हिन करता है, और लड़ाई और अफसरों की ललकार और जय-जयकार को दूर से सूंघ लेता है।

26 क्या तेरे समझाने से बाज़ उड़ता है, और दक्खिन की ओर उड़ने को अपने पंख फैलाता है?

27 क्या उकाब तेरी आज्ञा से ऊपर चढ़ जाता है, और ऊंचे स्थान पर अपना घोंसला बनाता है?

28 वह चट्टान पर रहता और चट्टान की चोटी और दृढ़स्थान पर बसेरा करता है।

29 वह अपनी आंखों से दूर तक देखता है, वहां से वह अपने अहेर को ताक लेता है।

30 उसके बच्चे भी लोहू चूसते हैं; और जहां घात किए हुए लोग होते वहां वह भी होता है।